प्राचीन भारत के एक नगर में दिनेशभूषण नामक एक विद्वान पंडित रहते थे, लेखन उनका व्यवसाय था! उन्होंने अपनी रचनाओं के द्वारा केवल धन ही नहीं, यश भी कमाया था, उनकी रचनायें देश-प्रेम, चरित्र-निर्माण और मानवता आदि गुणों से ओतप्रोत थीं! उस समय विक्रम सिंह नामक एक भयंकर डाकू का आतंक चारों तरफ छाया हुआ था. लोग उसके नाम से थर-थर कांपते थे. किसी को भी दिन दिहाड़े लूट लेना और क़त्ल कर देना उसके बाएँ हाथ का खेल था. दया उसके ह्रदय में नाममात्र भी नहीं थी. एक दिन उसने गिरोह के साथ दिनेशभूषण के घर पर धावा बोल दिया, वह अपनी बन्दूक पंडित जी की तरफ कर के खड़ा हुआ, ”पहले जलपान कर लीजिये, ऐसी भी क्या जल्दी है”, दिनेशभूषण जी ने शांत भाव से कहा! ”हम फालतू बातें नहीं सुनना चाहते, जो हम कह रहे हैं, वही करो,” विक्रम सिंह ने कडकती आवाज़ में कहा. ”यह लीजिये” तिजोरी की चाबी फेंकते हुए दिनेशभूषण जी ने कहा, ”तिजोरी के पहले खाने में सोना-आभूषण हैं, दूसरे खाने में जवाहरात हैं और तीसरे खाने में नगदी वगैरह है, चांदी वहां जमीन में दबा कर रखी गयी है. जितनी चाहे ले लो.” विक्रम सिंह के साथियों ने देखते ही देखते सारा माल तुरंत अपने कब्ज़े में ले लिया. दिनेशभूषण जी को लूट कर विक्रम सिंह जब चलने को हुआ, तब पंडित जी ने कहा, ”सिंह साहब, जलपान तो कर ही लेते. यहाँ जल भी है और मौका भी है. फिर ना जाने कब मौका मिले.” ”तुम्हे माल जाने का गम नहीं है, पंडित जी,” विक्रम सिंह बोला, ”आज तक हम ने इतनी डकैतियां डालीं, पर किसी ने भी इस तरह हंसी-ख़ुशी अपना माल नहीं दिया, किसी को मारा-पीता, कहीं डराया-धमकाया, कहीं-कहीं क़त्ल भी करना पड़ा, लेकिन आपने सारा माल स्वेच्छा से दे दिया, हमें ताज्जुब हो रहा है…..” ”मैंने अपने जीवन में खूब धन और यश कमाया है, दिनेशभूषण जी ने गर्व से कहा, ”अपनी एक-एक रचना से मुझे अपार धन प्राप्त हुआ है, अभी मैंने ‘पारसमणि’ की रचना की है, उससे अपार धन और नाम की प्राप्ति होगी.मेरी रचनाओं की पाठक बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं. मैं धन के लिए नहीं, नाम के लिए जीता हूँ, नाम, धन से कहीं बढकर है.” ‘यह पारसमणि’ क्या है?” विक्रम सिंह ने पुछा. ”पारसमणि’ मेरी नई रचना है, जिसमें भारत के प्राचीन आदर्शवादी महापुरषों के चरित्र, त्याग और उत्तम आचरणों का वर्णन किया गया है. इसके अध्धयन से पाठक अपना जीवन उन जैसा ही महान बना सकते हैं. ईश्वर की बनाई हुए पारसमणि लोहे को सोना बना देती है, पर यह ‘पारसमणि’ मनुष्य को महापुरुषों जैसा बनाएगी.” दिनेशभूषण जी ने कहा. ”तब तो हम यह ‘पारसमणि’ ही लेंगे.” विक्रम सिंह बोला, ”हमें तुम्हारा माल नहीं चाहिए और हम आज से डकैती भी नहीं डालेंगे.” पंडित दिनेशभूषण जी, मुस्कुराते हुए बोले, ”पारसमणि भी ले जाओ, विक्रम सिंह और माल भी.” विक्रम सिंह और उसके साथियों पर पंडित जी के व्यवहार और उनकी ‘पारसमणि’ का इतना असर पड़ा, कि वे माल वहीँ छोड़ कर वापस चले गए और उसी दिन से उन्होंने डकैती डालना भी छोड़ दिया…….
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