इंसान के जीवन में अनेक प्रकार के मोड़ आया करते हैं, उसे विभिन्न पड़ावों से हो कर गुजरना पड़ता है, शिक्षा प्राप्त करने की अवधि में उसका अनेक शिक्षकों से पाला पड़ता है. जो विभिन्न विषयों में उसका मार्गदर्शन करते हैं. इतिहास के पन्ने पलटने पर पता चलता है, की इस महान देश में अनेक विद्वान्, चिन्तक, मनीषी हुए हैं जिन्होंने मानव जीवन की आचार सहिंताओं का निर्माण किया, समय-समय पर मानव जीवन का मार्गदर्शन करते हुए, सटीक व्याखाएं करते रहे हैं. हमेशा मानव को करणी/अकरणी का बोध कराते रहे हैं. इन्हीं चिंतकों में आचार्य चाणक्य, एक महान चिन्तक/विचारक हुए हैं, उन्हें ‘कौटिल्य’ भी कहा जाता है, ‘सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य’ के गुरु और प्रधानमंत्री, इन्हें ‘चाणक्य नीति’ और ‘अर्थशास्त्र’ का रचयिता कहा जाता है. आज के राजनीतिक और अधिकारी वर्ग के लिए चाणक्य नीति को सम्पूर्ण मार्गदर्शक ग्रंथ कहा जा सकता है. कहा जाता है, महामंत्री चाणक्य अपने आवास में दो-दो दीपक रखा करते थे, जब वे राष्ट्रीय कार्य करते थे, तो राजकीय दीपक जलाते थे, जब उन्हें अपने निजी कार्य करना होता था, तब वे अपना निजी दीपक जलाया करते थे,
सामाजिक व्यव्हार को लेकर आचार्य चाणक्य ने कुछ सूक्तियों की रचना की है, जैसे, ”पाँव धोने के बाद बचे हुए पानी को कभी भी नहीं पीना चाहिए, इसे पीना पाप होता है, इसी प्रकार, आग, गुरु, ब्राहमण, गाय, कुंवारी कन्या, वृद्ध और बच्चे को कभी भी पाँव से नहीं छूना चाहिए, ऐसा करने से पाप लगता है” आज का इंसान केवल ‘आज’ का ही सोचा करता है, जबकि सच्चाई ये है कि ‘आज’ की नींव ‘अतीत’ पर ही टिकी हुई होती है, उसे भुलाया नहीं जा सकता, हम ‘आज’ जो कुछ भी करते हैं, उसका फल हमें यहीं, इसी जन्म में मिल जाया करता है, आचार्य चाणक्य ने इसकी व्याख्या गाय और बछड़े का उदाहरण देकर की है, ”जिस प्रकार हजारों गायों के बीच बछड़ा अपनी माँ के पास ही आया करता है, ठीक उसी प्रकार हमें भी अपने किये हुए कर्मों के फल यहीं भुगतने होते हैं.” आचार्य चाणक्य ने सामाजिक सरोकारों को व्यवस्थित कर सामाजिकों का मार्गदर्शन किया है, संतान के प्रति पिता के क्या-क्या कर्त्तव्य हुआ करते हैं, इसका वर्णन उन्होंने इस प्रकार किया है, ”पांच वर्ष की अवस्था तक संतान का लालन-पालन करना चाहिए, दस वर्ष की उम्र तक उसे प्रताड़ित करते रहना चाहिए, उसके बाद सोलह वर्ष की आयु के पश्चात उसके साथ मित्रवत व्यवहार करना चाहिए” वैसे भी कहा जाता है, जब बाप का जूता, बेटे के पाँव में आ जाये, तो उसे मित्र ही समझना चाहिए. पूत-कपूत को लेकर आचार्य चाणक्य इस प्रकार स्पष्ट करते हैं, ”सुपुत्र उस चंद्रमा के समान है, जो अपने अकेले के दम से गहन काली रात में भी उजाला कर देता है, इसके विपरीत कुपुत्र उस सूखे वृक्ष के समान है जो स्वयं तो जलता ही है, सारे वन को भी जलाकर ख़ाक कर देता है”. मनुष्य के वास्तविक मित्र कौन से हैं, इस पर भी आचार्य चाणक्य ने अपने विचार प्रकट किये हैं, ”प्रवासकाल में विद्या (ज्ञान) मित्र होती है, गृहस्थ जीवन में पत्नी, रोगी के लिए औषधि, और मृत्यु के बाद धर्म ही मनुष्य का परम मित्र होता है” आचार्य चाणक्य ने विद्यार्थियों के लिए भी कुछ कहा है, ”सुख की कामना करने वाले को विद्या त्याग देनी चाहिए, क्योंकि सुख चाहने वालो को विद्या नहीं मिला करती और विद्या चाहने वालों को सुख नहीं मिला करता” आचार्य चाणक्य का मानना है की मानव सदा से ही प्रक्रति पुत्र रहा है, अगर मनुष्य प्राकृतिक जीनव व्यतीत करता है, तो ज्यादा सुखी रहता है, आचार्य चाणक्य ने पशु-पक्षियों से सीख लेने की मानव को सलाह दी है, उन्होंने शेर से एक, बगुले से एक, मुर्गे से चार, कौए से पांच, कुत्ते से चार बातों की शिक्षा लेने को कहा है, ”शेर अपना कार्य पूरी शक्ति से सम्पन्न किया करता है, बगुले में मन की एकाग्रता हुआ करती है, मुर्गे से जागना, लड़ना, भागना और स्वयं झपट कर खाना सीखा जा सकता है, कौवा हमेशा छिपकर सहवास करता है,, वह किसी पर विश्वास नहीं करता, उसमें संग्रह की प्रवर्ति होती है, वह हर समय सावधान रहता है, संकट पड़ने पर वह अपने साथियों को एकत्रित कर लेता है. कुत्ता थोड़े में ही संतोष कर लेता है, गहरी नींद में भी वह सतर्क रहता है, वह वीर और स्वामिभक्त होता है.” मनुष्य बुदापे को लेकर भी चिंतित रहता है, ये कब आता है, या क्या लक्षण हैं इसके, आचार्य चाणक्य इसे इस प्रकार स्पष्ट किया है, ”राह नापता हुआ मनुष्य, बंधा हुआ घोडा, सहवास वर्जित स्त्री तथा वस्त्रों का सूखना ही बुढ़ापे का अहसास करते हैं.” शुद्ध-अशुद्ध के बारे में आचार्य चाणक्य ने कहा है, ” कांसा राख से, तांबा अम्ल (खट्टा) से, नारी रजस्वला होने से, नदी अपने ही वेग से शुब्ध हुआ करते हैं” हमेश भूमिगत जल शुद्ध होता है, पतिव्रता स्त्री शुद्ध होती है, जो ब्राह्मण संतुष्ट रहता है, वो शुद्ध होता है,” व्यक्तिगत शुद्धता के लिए उन्होंने कहा है,”मन वचन को नियंत्रत रखना, इन्द्रियों का निग्रह करना, सभी प्राणियों के प्रति दया करना, दूसरों का उपकार करना” ही सर्व शुद्धता होती है. —————————————————————————————————————————————— आचार्य चाणक्य ने सामाजिक सरोकारों को अनेक प्रकार से विश्लेषित किया है. ये तो चंद उदाहरण हैं, उनकी सूक्तियों का दायरा काफी वृस्तित है, —————————————————————————————————————————————— पाठकों से क्षमा चाहते हैं, क्योंकि आचार्य चाणक्य की सूक्तियां संस्कृत में होने की वजह से टाइपिंग में प्रॉब्लम आ रही थी, सो हमने, उनको सिर्फ हिंदी सरलार्थ में ही टाइप किया है, क्षमाप्रार्थी हैं, —————————————————————————————————————————————–
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