कुछ न कुछ तो सत्य है ही साधना में जो इस धरती के करोड़ों लोग इस के मार्ग पर चल रहे हैं, उन्हें कुछ न कुछ तो मिलता ही है जो तमाम लोग अपना समय लगा रहे हैं. सत्य ही कहा गया है कि साधना में शक्ति तो है ही, लेकिन इस शक्ति का अनुभव मात्र साधक ही कर सकता है. शव साधना करने वाला ही शव साधना से प्राप्त शक्ति के बारे में जान सकता है, सप्तशती का पाठ करने वाला ही उस शक्ति के बारे में जान सकता है. अगर कोई नया खिलाडी बिना गुरु के मार्गदर्शन के शव साधना करने लगे या मारण प्रयोग करने लगे तो हानि तो उठाएगा ही, इसमें कतई संशय की आवश्यकता नहीं. यह घटना भी एक पूर्वकालिक पेशेवर पंडित जी से सम्बन्धित है. उन्होंने अपनी गृहस्थी का पालन/पोषण/पढाई-लिखाई/बच्चों के शादी/ब्याह सभी इसी पंडताई से ही कर लिया. एक बार एक सेठ के लड़के ने हत्या के आरोप में जिला न्यायालय से फांसी की सजा पाई. सेठ जी रोते कल्पते पंडित जी की शरण में, शायद उनका लड़का निर्दोष था, लेकिन दुर्भाग्यवश उस लड़के को सजा हो गयी, सेठ जी पंडित जी के पैर पकड़ कर फफक पड़े. पंडित जी ने सेठ जी से लड़के की जन्मकुंडली मंगवाई, अध्ययन किया, अपनी संतुष्टि की और सेठ जी के पुत्र को बचाने हेतु अनुष्ठान करने का आश्वासन दिया. जिस वक़्त ये बातें हो रहीं थीं, उस वक़्त पंडित जी का निवास स्थान कच्चा था, छप्पर पड़ा हुआ था, यकायक सेठ जी की नज़र पड़ी तो सेठ जी कह उठे, महाराज मेरा पुत्र बरी हो गया तो आपका मकान पक्का बनवा दूंगा. पंडित जी ने कहा, मेरे बस का कुछ नहीं, मैं तो मात्र उस मातेश्वरी से प्रार्थना करूंगा. हाँ, यदि आपका पुत्र वाकई निर्दोष है, तो आपका पुत्र एक माह में घर आ जायेगा, आप जा कर इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील कीजिये. (यह सत्य घटना 1970 की है, घटना का स्थान और पात्रों के नाम देना यहाँ उचित नहीं है) सेठ जी चले गए, अपील की हाईकोर्ट में, सेठ जी का मुनीम नित्य ही अनुष्ठान की सामग्री, घी, जों, इत्यादि पंडित जी के घर आकर दे जाता. पंडित जी के आवास और सेठ जी की हवेली में 30 किमी कि दूरी थी. पंडित जी पूरे मनोयोग से अनुष्ठान में जुट गए. 23 दिन गुजर गए. प्रक्रति का चमत्कार, 30वें दिन शाम को लगभग 6 बजे सेठ जी को उनके वकील का इलाहाबाद से फ़ोन आया, सेठ जी के पुत्र को हाईकोर्ट से जमानत पर रिहा करने का आदेश मिल गया था, अदालत का आदेश लेकर आदमी इलाहाबाद से चल चुका था. सेठ जी अभिभूत भाव से उसी रात एक ट्रक सीमेंट लेकर पंडित जी के घर को चल पड़े. सेठ जी का पुत्र कुछ माह बाद बरी हो गया. इधर पंडित जी का मकान तैयार हो गया था. इन्ही पंडित जी का युवा पुत्र लक्ष्मीकांत बी.एस.सी का छात्र था, मेडिकल परीक्षा की तैयारी कर रहा था. एक दिन लक्ष्मीकांत अपने पिता से कह बैठा, पापा आप यह नाटक कब तक करते रहोगे, जनता को कब तक मूर्ख बनाते रहेंगे, अब आप मुझे कोई चमत्कार दिखाएँ तब मैं जानू, मैं विज्ञान का छात्र हूँ, यह सब धोखा है, नहीं तो आप यह सब कुछ छोड़ दीजिये. पिता अपने पुत्र के मुंह से ऐसी बातें सुनकर सकते में आ गए. जिस पंडताई से सारी गृहस्थी चला रहा हूँ, लड़का उसके बारे में ही यह बातें बोल रहा है, पिता ने हस कर टाल दिया, अरे जा पढाई कर, क्या करेगा चमत्कार देख कर, मेरे पास कोई जादू नहीं है, जो चमत्कार दिखा सकूं. युवा पुत्र जिद पर आ गया था, या तो चमत्कार दिखाइए या फिर ये पूजा-पाठ छोड़ दीजिये, पंडित जी पुत्र की जिद के आगे हार गए, कारण था पुत्र प्रेम. किसी भी अनिष्ट से बचाने का उत्तरदायित्व भी था. पुत्र को कुछ न कुछ अनुभव तो कराना ही था. रजोगुणी, तमोगुणी मार्ग से चमत्कार जल्दी होने की सम्भावना थी, लेकिन इस मार्ग से अनिष्ट होने की सम्भावना भी अधिक थी. कहा, ठीक है, मंगलवार को एक काम बताऊँगा, ध्यान से करना, अपने आप ही सब कुछ पता चल जायेगा, लेकिन हाँ, यदि कुछ अनुभव हो, और तेरे ज्ञान की कसौटी पर खरा उतरे तो जीवन भर कभी ऐसी बात मत करना, और साधना का मार्ग कभी मत छोड़ना, जब तक जीवन रहे, नित्य कुछ न कुछ साधना अवश्य करना. पुत्र ने स्वीकार कर लिया, मंगलवार आ गया, पिता ने पुत्र को एक साधारण सा काम बता दिया, नित्य रात्रि 11 बजे सरसों के तेल का दीपक जलाकर हनुमान जी की प्रतिमा के सामने रखकर दक्षिण दिशा की तरफ मुंह करके रामचरितमानस के सुन्दर कांड का पाठ करना, पूरा सुन्दर कांड नित्य समाप्त करना, कम से कम 11 दिन तक नहा धोकर स्वस्छ वस्त्र पहन कर. चाहे कुछ भी हो जाये, आसन से उठकर भागना मत. लक्ष्मीकांत ने अनुष्ठान प्राम्भ कर दिया. पिता ने अपनी खटिया भी उसी कमरे में थोड़ी दूर डाल ली. पुत्र के आसन के चारों और अभिमंत्रित जल से रक्षा कवच बना दिया. अपनी रुद्राक्ष की माला भी पुत्र के गले में डाल दी. पांच दिन गुजर गए, पाठ सस्वर चलता रहा, पिता खाट पर लेटे पुत्र की रक्षा करते, सो जाते. छठे दिन, लगभग रात के 12 बजे पुत्र की चीख सुनाई दी, पंडित जी उठकर भागे, पुत्र के कंधे पर हाथ रखा, बहुत सहमा हुआ था लक्ष्मीकांत, पाठ पूरा करके उठा तो पिता को बताया, “ऐसा लग रहा था जैसे मेरे पास एक वानर बैठा रामायण सुन रहा है, उसकी आँखें बंद थीं, और हाथ जुड़े हुए थे. ये शायद मेरा भ्रम था या कुछ और.” कोई बात नहीं, पंडित जी मुस्करा दिए. उसके बाद लगभग रोज रात को लक्ष्मीकांत डर कर चीखता, पिता फिर उठकर भागते. रामायण का पाठ पूरा हुआ. पूरे 11 दिन लक्ष्मीकांत पाठ करता रहा. उसके बाद अपने पिता के पाँव पकड़ लिए, और क्षमा मांगी. लक्ष्मीकान्त ने खुद ये घटना स्वामी जी को बताई, कहा छठे दिन से एक वानर आकृति कमरे में मेरे पास आकर बैठ जाती, और पाठ पूर्ण होने तक मैं उसे स्पष्ट देखता. पाठ पूर्ण होने पर आरती करने के बाद वो आक्रति गायब हो जाती. लक्ष्मीकांत ने आगे कहा, स्वामी जी, उस बंद कमरे में, किसी का भी घुस पाना असंभव है, तो वो वानर कहाँ से आता था, पहले तो मुझे डर लगा था, बाद में श्रद्धा-विश्वास पूर्वक मैं भी उस वानर प्रतिमा को प्रणाम करने लगा था. कुल मिला कर इस अदभुत घटना ने, या ये कहिये लक्ष्मीकांत के इस अनुभव ने जीवन में सोचने का ढंग ही बदल दिया था उसका. बाद में पक्का धरम-भीरु हो गया, तंत्र का पारंगत हो गया, अच्छा मन्त्र विज्ञानी हो गया. लेकिन हाँ, डॉक्टर तो नहीं बन सका, लेकिन एल.एल.बी. करके आज इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत कर रहा है… लेकिन आज भी हैरान है, कि आखिर उस वानर आकृति का रहस्य क्या था…….?
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