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प्रेम-पत्र…(love Letter)

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2010-09-04_160258[1]
तुम्हें जान कहू या जाने-जिगर…………
मुझमें जो भी हो, बस तुम्हीं हो, …………….मेरी निगाहों में तेरा अक्स है, ……………मेरी साँसों में तेरी महक है, ……….पास रहकर भी कितना दूर हो मुझसे, क्या तडपाने की कसम खाई है तुमने,
फूल की नाजुक पंखुडिया चूमते हुए यही महसूस होता है….. मानो तुम्हारे होठों को चूम लिया है………कोई भूल से बहारों का ज़िकर कर दे तो, तुम्हारे खुले रेशमी बालों का ख़याल आ जाता है…………….सुबह की ओस की पहली बूँद भी इतनी पवित्र नहीं होती होगी, जितने तुम्हारे होठों की मुस्कान…………बहुत याद आते हैं, तुम्हारे खुल-खुल जाने वाले रेशमी बालों के झरने……….. आओ, आकर फिर से उन्ही गेसुओं की छांव में ले लो मुझे, अब और सब्र नहीं होता……….
तन्हा हूँ………..जुदाई का दर्द है न सीने में…………ऐसा लगता है………….मानो पेड़ से टुटा हुआ एक पत्ता हूँ मैं……….जिसे आंधियां उड़ा कर ले गयी हैं…………दूर बहुत दूर………….एक जलते तपते रेगिस्तान में…..डरता हूँ……….तन्हाईयों के रेगिस्तान में कहीं खो न जाऊं…….
ऐ मेरी आँखों के रंगीन सपने,………….तू कोई मर्गतृष्णा तो नहीं……..तो फिर क्यों सीने से उठती टीसें दर्द में घुल कर दिल को इस कद्र तडपा जाती हैं……जैसे, मानो किसी ने जलते हुए अंगारों पर रख दिया हो दिल को………
हवा बन कर आ जाओ, या खुशबु बन कर……..मेरे प्यार ने दामन बिछा रखा है…………
देखना……..ये इंतज़ार……..कहीं इंतज़ार ही न रह जाये……………

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